IIT Roorkee उत्तराखंड में रुड़की स्थित आईआईटी के बायोसाइंसेज एंड बायोइंजीनियरिंग विभाग के वैज्ञानिकों ने 10 साल शोध करने के बाद धान की अधिक उपज वाली प्रजाति को विकसित करने में सफलता हासिल की है। वैज्ञानिकों ने जीनोम इंजीनियरिंग तकनीक के माध्यम से धान के पौधे की जड़ों में बदलाव किया है। इससे जड़ों की लंबाई बढ़ाई जा सकी है।
IIT Roorkee : रीना डंडरियाल, रुड़की। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की के बायोसाइंसेज एंड बायोइंजीनियरिंग विभाग के विज्ञानियों ने धान की ऐसी प्रजाति तैयार की है, जो ज्यादा पोषक होने के साथ उत्पादन भी अधिक देती है।
इस प्रजाति को अभी कोई नाम नहीं दिया गया है। विज्ञानियों ने क्रिस्पर आधारित जीनोम इंजीनियरिंग तकनीक से धान की जड़ का आर्किटेक्चर बदलकर यह सफलता हासिल की।
इस तकनीक से न केवल पौधे का बेहतर विकास होता है, बल्कि बीजों की संख्या, आकार, अनाज का पोषण मूल्य व प्रोटीन की मात्रा भी बढ़ती है।
विभाग के सह-प्राध्यापक श्रीराम यादव और उनकी टीम बीते दस वर्ष से इस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही है। आईआईटी रुड़की के बायोसाइंसेज एंड बायोइंजीनियरिंग विभाग के सह-प्राध्यापक श्रीराम यादव ने बताया कि सूखा होने पर जलस्तर घटता है।
पौधा कुछ समय तक तो यह सह सकता है, लेकिन लंबे समय तक यही स्थिति बने रहने पर दिक्कत आती है। इन विपरीत परिस्थितियों में पौधे भले ही पूरी तरह न मरें, लेकिन उनकी उत्पादन क्षमता के साथ पोषकता घट जाती है।
ऐसे में धान के पौधे की जड़ में बदलाव करने पर कई दिक्कतें दूर हो जाती हैं। बताया कि जीनोम इंजीनियरिंग के जरिये अगर धान के पौधे की जड़ को डेढ़ से दो गुना लंबा कर दें तो सूखे की स्थिति में भी लंबी जड़ होने के कारण उसे पानी मिलता रहेगा। इससे पौधे को नुकसान नहीं होगा।
ऐसे किया बदलाव
विज्ञानी यादव ने बताया कि सबसे पहले पौधे में उस जीन को चिह्नित करते हैं, जिसे बदलना है। फिर एक जेनेटिक टूल के जरिये चावल के नेचुरल जीन के एक्सप्रेशन लेवल को बदलते हैं।
इस तकनीक की विशेषता है कि जीन को बदलने के बाद ट्रांसजीन को बाहर निकाल सकते हैं। पौध को आईआईटी रुड़की परिसर स्थित प्रयोगशाला व ग्रीन हाउस में उगाया गया।
इसमें करीब एक वर्ष लगता है। फिर चार-पांच माह में बीज मिल जाते हैं, जबकि ट्रासंजीन फ्री बनाने में करीब दो वर्ष लगते हैं। यानी लगभग तीन वर्ष में ट्रांसजीन रहित पौधा तैयार हो जाता है।
शोध के दौरान टीम को कई चुनौतियां झेलनी पड़ीं। सर्वाधिक समय टारगेट चिह्नित करने में लगा। चावल में 40 से 50 हजार जीन होते हैं, जिनमें से उस एक जीन का पता लगाकर उसे टारगेट करना खासा चुनौतीपूर्ण है।
इसके बाद कई पैरामीटर पर जांच की जाती है। देखते हैं कि जैसा हम चाह रहे थे, वैसा ही पैटर्न मिल रहा है या नहीं।
एडिटिंग के बाद टूल बाहर, चावल ट्रांसजीन फ्री
जीनों के विशाल समूह को जीनोम कहते हैं। सेल के अंदर न्यूक्लियस होता है और न्यूक्लियस के अंदर डीएनए। टारगेट जीन के लिए क्रिस्पर-कंस्ट्रक्ट बनाकर उसे न्यूक्लियस में डालते हैं, जहां वह अपने टारगेट जीन को एडिट कर देता है।
इस प्रक्रिया में सुनिश्चित किया जाता है कि वह केवल अपने टारगेट को ही एडिट करे। क्रिस्पर बेस्ड जीनोम इंजीनियरिंग तकनीक की विशेषता है कि एडिटिंग के बाद टूल को बाहर निकाल सकते हैं।
अब इसमें कोई ट्रांसजीन नहीं है और यह नेचुरल चावल जैसा हो जाता है। विज्ञानी यादव ने बताया कि इस तकनीक में टिशू कल्चर करना पड़ता है, ट्रांसजीन बनाना पड़ता है, मोडिफिकेशन आदि कार्य करने पड़ते हैं।
परखने को प्रयोगशाला में जांच
नई किस्म बनाने के बाद देखते हैं कि उपज बढ़ी या नहीं। साथ ही उसकी पोषकता में तो कमी नहीं आई। इसको परखने के लिए प्रयोगशाला में जांच करते हैं। उसकी न्यूट्रीशियन प्रोफाइल कर पता लगाया जाता है कि पहले और अब के अनाज में क्या अंतर हैं।